(This article first appeared here in Round Table India on October 17, 2016)
आशा सिंह
कई दिनों से देख रही हूँ कि हमारे दलित-बहुजन साथी लीना यादव की फिल्म Parched की तारीफ कर रहे हैं। मेरे इस आलेख का आधार इस फिल्म की विषयवस्तु और इसके निर्देशक का साक्षात्कार है (देखें National Dastak, You Tube)।i
फिल्म लज्जो, बिजली, रानी नामक तीन तथाकथित ‘ग्रामीण’ महिला किरदारों की कहानी है। लज्जो ‘बाँझ’ है, रानी ‘विधवा’ है और बिजली ‘डांसर व सेक्स वर्कर’ है। लीना यादव कहती हैं कि उन्हें इस फिल्म को बनाने का आईडिया तन्निष्ठा चटर्जी की ‘रोड मूवी’ के अनुभव से आता है, जहाँ उन्होंने पाया कि गाँव की महिलाएं सेक्स पर खुल कर बात करती हैं। लीना ‘रूरल वीमेन’ की ये ‘ख़ासियत’ अपनी फिल्म के माध्यम से दुनिया के सामने लाना चाहती हैं। वे ये भी कहती हैं कि ‘गाँव’ की महिलाओं की ज़िन्दगी और उनकी ख़ुद की ज़िन्दगी की कहानी एक जैसी है।यहाँ तक कि उन्होंने ‘रूरल वीमेन’ की कहानी को अपने विदेशी मित्रों को भेजा और लन्दन व न्यूयॉर्क में भी ऐसी ही कहानियां पाई गयीं।लब्बोलुआब यह कि पितृसत्ता की मार दुनिया भर की औरतें (शहरी और ग्रामीण) समान रूप से झेलती हैं।
लीना जी कह रही हैं कि इस फिल्म की पोषाक हो या भाषा सब कुछ उन्होंने मिला-जुला कर बनाया है – थोड़ा गुजराती, थोड़ा कच्छी, थोड़ा हरियाणवी आदि। यानि वे किसी एक जाति या समुदाय की कहानी नहीं कहना चाहती, वे बताना चाहती हैं कि ये सबकी कहानी है।
फिल्म देख कर मुझे तो ऐसा लगा कि तन्निष्ठा चटर्जी, सुवरीन चावला, सयानी गुप्ता, राधिका आप्टे किसी सोशल वर्क संस्थान की छात्राएं हैं और फील्ड वर्क करने किसी गाँव गयी हैं। किसी ने गुजराती costume पहन लिया, किसी ने हरियाणवी तो किसी ने कारीगर जाति की महिलाओं की पोषाक पहन ली और ‘रूरल वीमेन’ बन गयीं। संवादों में तरह-तरह का देसी छौंका लगा लिया और हो गयी तैयार ‘रूरल वीमेन’ की कहानी।
फिल्म की टीम को ‘रूरल वीमेन’ की ‘सेक्स-लाइफ’ में बड़ी रूचि है क्योंकि ‘रूरल’ महिलाएं बेबाकी से ‘सेक्स’ पर बात रखती हैं। मैं यह नहीं कहना चाहती की ‘सेक्स’ पर बात ना हो लेकिन केवल सेक्स पर exclusive चर्चा का कोई अर्थ नहीं है। ये ‘रूरल वीमेन’ की ‘सेक्स-लाइफ’ की परिस्थितियां क्या हैं? ये महिलाएं क्या खाती हैं, कहाँ नहाती हैं, शौच के लिए कहाँ जाती हैं, इन बातों पर चर्चा किए बगैर हम सेक्स-लाइफ की चर्चा कैसे कर सकते हैं? हम आए दिन पढ़ते-सुनते हैं कि – शौच के लिए घर से निकली बालिका या महिला का बलात्कार। ये महिलाएं कौन हैं जो शौच के लिए घर से निकलती हैं और उनका बलात्कार करके मार दिया जाता है? जाहिर है ये महिलाएं ग्रामीण इलाकों की महिलाएं हैं और जाहिर है कि ज़्यादातर दलित-बहुजन महिलाएं हैं जिन्हें शौच के लिए रात होने का इंतज़ार करना पड़ता है क्योंकि दिन में खुले में महिलाएं शौच नहीं कर सकती, नाहीं इनके घरों में शौचालय हैं।
मेरी माँ जिसकी आधी से अधिक उम्र बिहार के अहीर (यादव) गाँव (मायके+ससुराल) में गुजरी है, बताती है कि जब वह नयी बहू होकर अपने ससुराल आई थी तब कई सालों तक कम से कम खाना खाती थी ताकि शौच के लिए दिन में घर से निकलने की नौबत ना आए। आज भी मेरे गाँव में शौचालय नहीं हैं, दो-चार लोगों के घर हैं भी तो बेहद असुविधाजनक तरीके से बने हुए जिसमें पानी की कोई व्यवस्था नहीं हैं और नाहीं इन शौचालयों को सीवर से जोड़ा गया है। ये बेहद बदबूदार और सड़ांध से भरे हुए शौचालय हैं जिसमें बैठना दूभर है। मैं जब दो-चार दिन के लिए गाँव जाती हूँ तो जीना मुहाल हो जाता है। सुबह अँधेरे में उठ कर शौच जाने की आदत नहीं है। उजाला होने पर उठती हूँ और चचेरी बहने मुझे किसी खेत में शौच कराने लेकर जाती हैं। वे रखवाली करती रहती हैं और जैसे ही कोई आदमी गुज़रता है, मुझे उठा देती हैं, ऐसे उठक-बैठक करते हुए शौच करना पड़ता है। ऐसी ‘रूरल’ महिलाएं जो टट्टी-पेशाब दबा-दबा कर जीती हैं उनकी सेक्स लाइफ कितनी ‘रोमांचक’ होगी इसका अंदाज़ा आप लगा ही सकते हैं। ऐसे में फिल्म का वह दृश्य जिसमें तीनों महिलाएं रात को बेफ़िक्र होकर नग्न अवस्था में नदी में नहाती हैं केवल एक क्रूर मज़ाक लगता है। यह एक असंभव और अगंभीर दृश्य है। मुझे इस दृश्य में कोई मुक्ति दिखाई नहीं देती। शौच-स्नान आदि के सवाल जेंडर, जाति और ज़मीन से जुड़े हैं। यह दृश्य केवल शहरी अभिजात्य वर्ग के लिए है जो निरंतर फेमिनिस्ट परीकथाओं की तलाश में है।
जो लोग कह रहे हैं की यह फिल्म मुख्यधारा का स्त्रीवाद नहीं बल्कि एकदम अलग हट के है, कृपया मुगालते में ना रहें। यह फिल्म मुख्यधारा के अंधे स्त्रीवाद का ही एक नमूना है जो कहता है कि हर औरत की कहानी एक है। एक नक़ली गाँव और बहरूपिया ‘रूरल वीमेन’ का चोंगा ओढ़ कर वही सतही कहानी दुहराई गयी है। शावर में नहाने और साफ़-सुथरे वेस्टर्न टॉयलेट में शौच करने वाले कह रहे हैं कि हर औरत की कहानी एक है? यह फिल्म मुझे एक सतही ‘वीमेन स्टडीज़ कोर्स वर्क’ जैसी लगी जिसमें केवल ‘sexuality module’ पढ़ाया गया हो, वो भी एक नाटक के माध्यम से और बाकी intersecting पहुलओं को छोड़ दिया गया हो।
यहाँ मैं अपने डॉक्टोरल रिसर्च का उल्लेख करना चाहूंगी। मैंने भोजपुरी लोकगीतों पर काम किया है जिसमें पाया कि भोजपुरी कृषक समाज में मर्दों और औरतों के अलग-अलग प्रकार के गीत हैं जो अलग-अलग अवसरों और श्रम की प्रक्रियाओं के दौरान गाए जाते हैं। औरतें अनाज़ पीसते हुए, धान रोपते हुए, फ़सल की कटाई करते हुए गीत गाती हैं। वहीँ मर्दों के गीतों में होली, चैता, बारहमासा जैसे मौसमी और फ़सली गीत हैं। औरतों के अधिकतर गीतों में रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का बयान मिलता है; यौन संबंध, मातृत्व जैसे मुद्दों का बेहद बारीक विवरण है। वहीँ मर्दों के गीतों में हाइपर-सेक्सुअल महिला किरदार होते हैं और सेक्स के सिवा अन्य मुद्दे गौण हैं। Parched फिल्म मुझे मर्दों के गीतों जैसी लगी जो रोज़मर्रा के भौतिक जीवन और यौनिकता को अलग-अलग खांचे में रखते हैं।
भले ही निर्देशक यह दावा कर रहीं हो कि यह किसी की भी कहानी हो सकती है लेकिन यह फिल्म फिल्माई तो गयी है एक ‘गाँव’ नुमा सेटिंग में। यह भी नज़र आता है कि वहां की महिलाएं handicraft से अपनी आजीविका चला रही हैं। हर महिला handicraft करके आजीविका नहीं चलाती, ये बहुजन कारीगर जाति की महिलाएं हैं। रानी के किरदार के पोषाक से साफ़ ज़ाहिर है कि वे रबारी जाति की महिला हो सकती हैं। एक ऐसी पशुपालक जाति जो एक ख़ास किस्म की कारीगरी के लिए जानी जाती है। इनकी कारीगरी की राष्ट्रीय- अन्तराष्ट्रीय बाज़ार में मांग है। रबारी जाति के लोगों ने इस फिल्म पर आपत्ति उठाई है, हालाँकि अपनी आपत्तियों में वे पितृसत्तामक दिखाई पड़ रहे होंगे लेकिन हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि यह कारीगरी ही उनकी एकमात्र अभिव्यक्ति है। जब इस अभिव्यक्ति के माध्यम से आप उनकी ज़िन्दगी को रच रहे हैं तो आपको इस समुदाय को भी अपना दर्शक वर्ग मानकर चलना होगा। २००१ के जनगणना के मुताबिक इस जाति के लोगों की जनसंख्या बीस हज़ार से कम है और महिलाओं की साक्षरता केवल २३ प्रतिशत है। ज़ाहिर है कि इस जाति को दर्शक का दर्जा प्राप्त नहीं है। वे केवल फ़िल्म में ऑब्जेक्ट बन सकते हैं न की फिल्म को critically analyse करने वाले subjects। यह फिल्म केवल urban और इंटरनेशनल दर्शक वर्ग को ध्यान में रख कर बनाई गयी है। उनके लिए ‘रूरल वीमेन’ का exotic चित्र बनाया गया है, ठीक उसी प्रकार के चित्र जिन्हें वे अपने ड्राइंग रूम की दीवारों पे सजाते हैं।
Representation का कोटा पूरा करने के लिए फिल्म में पूर्वोत्तर (मणिपुर) की एक महिला किरदार को दिखाया गया है। वह महिला स्थानीय उद्दमी की पत्नी है जो महिलाओं के handicraft को बाज़ार तक पहुंचाता है। ये महिला इस कच्छ/गुजरात के गाँव में कैसे पहुंची, उसे एक हरियाणवी टोन में बात करने वाले स्थानीय आदमी से कैसे प्यार हुआ और कैसे शादी करके उसने यहाँ बसने का फैसला लिया – ये सवाल अगर किनारे लगा भी दें तो भी ‘नओबी’ नामक महिला के किरदार के साथ न्याय नहीं हुआ है। उसके मुंह में संवाद ठूँसे गए हैं, मसलन, जब उसे ‘विदेशी’ महिला कहा जाता है तब ‘नओबी’ उत्तर देती है कि वह विदेशी नहीं ‘भारतीय’ है। यह सिर्फ लीना जी की फिल्म नहीं बल्कि, अन्य फ़िल्मों जैसे ‘चक दे इंडिया’ और ‘मेरिकोम’ में पूर्वोत्तर के किरदारों के मुंह से भी जबरदस्ती ‘हम भी भारतीय हैं’ जैसे संवाद बुलवाए गए हैं। ‘Parched’ फिल्म भी राष्ट्रवादी फिल्म के फ्रेमवर्क में आराम से फिट हो जाता है जहाँ एक दमित समुदाय दमनकारी राष्ट्र को स्वीकार करने पर मजबूर किया जाता है। और रावण-दहन का दृश्य तो ‘बेहतरीन’ है जो एक ख़ास किस्म के राष्ट्रवादी परिकल्पना की पुष्टि करता है। बुराई (रावण) पर अच्छाई (राम) की जीत का प्रतीक कहाँ से आ रहा है यह बताने की ज़रूरत नहीं हैं। जैसे मुख्यधारा के सवर्ण नारीवाद में दुर्गा-काली रूपी प्रतीक हैं, इस फिल्म के प्रतीक कौन से भिन्न हैं जो हमारे बहुजन साथी खुश हो रहे हैं।
अंतर्राष्ट्रीय [गोरे] दर्शकों से खजुराहो और कामसूत्र की चर्चा किए बगैर ‘भारतीय सेक्स’ पर चर्चा करना असंभव है। उसकी कमी भी फ़िल्म ने पूरी कर दी है। एक साधु नुमा आदमी को दिखाया गया है जो कहीं पहाड़ के पीछे गुफ़ा में रहता है और उसने ‘डांसर’ बिजली को प्यार के सपने दिखाए हैं। ‘डांसर’ बिजली ‘बाँझ’ लज्जो को अपने इस गुप्त प्रेमी के पास ले जाती है क्योंकि लज्जो को पता चल गया है कि उसका पति ‘नामर्द’ है और बच्चा पैदा करने में सक्षम नहीं है। इस साधु नुमा व्यक्ति और लज्जो के यौन संबंध वाले दृश्य में ‘कामसूत्र’ की कलात्मकता रचने की भरपूर कोशिश की गयी है। कुल मिलाकर यही समझ आता है कि ये साधु जो गुफ़ा में रहता है किसी प्रकार का श्रम नहीं करता केवल साधना करता है, बस वही सक्षम हो सकता है एक महिला की शारीरिक ज़रूरत को पूरा करने और उसका गर्भाधान करवाने में। इस कूढ़मगज भारतीय समाज में किसी साधु बाबा के आशीर्वाद और भभूति से बच्चा पैदा करवाने की कवायद कोई नयी बात नहीं है। अंधविश्वास के चक्कर में तो ऐसे तमाम साधु-बाबाओं के धंधे चलते हैं। हाँ, इस फिल्म में यह मामला ज़रा mystic (रोमांटिक रहस्यवादी) तरीके से दिखाया गया है।
पूरे गाँव में ये दो ही मर्द अच्छे हैं एक वो mystic साधु और दूसरा वो स्थानीय उद्दमी। बाकी सारे मर्द यौन पिपासु जानवर दिखाए गए हैं। कुल मिलाकर ऐसा लगता है की सारी समस्याओं के जड़ ये बहुजन-गँवई मर्द है। बस ग्रामीण मर्दों के ख़तम होने की देरी है, महिलाओं की ज़िन्दगी संवर जाएगी।
मुझे लीना यादव से कोई व्यक्तिगत समस्या नहीं है, शायद उन्हें दलित-बहुजन राजनीति का एक्सपोज़र नहीं होगा, और उन पर अपनी उम्मीदें थोपना उचित नहीं होगा, ऐसी तमाम फ़िल्में बनती रहती हैं । पर मुझे अपने दलित-बहुजन साथियों से समस्या हो रही है जो इस फिल्म को समारोहित कर रहे हैं। और इस फिल्म को क्रांतिकारी certificate दे रहे हैं। यह बहुजनवाद नहीं है।ii हमें यह समझना चाहिए इस फिल्म को समारोहित करके हम इस तर्क को स्वीकार कर रहे हैं कि दलित-बहुजन महिलाओं की समस्या केवल उनके मर्दों की वजह से है।iii हम इसे केवल पितृसत्ता का मामला बना रहे हैं, जबकि हमारे मुद्दों के लिए अधिक बेहतर शब्द है – ब्राह्मणवादी पितृसत्ता, जो इस देश के प्रत्येक महिला व पुरूष की सामाजिक-आर्थिक स्थिति तय करता है। हम लीना जी के वक्तव्य से सहमत हैं कि – ‘यह किसी भी महिला की कहानी हो सकती है’ तो हम मान रहे हैं कि दलित-बहुजन स्त्रीवाद की ज़रूरत नहीं है।
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References
i) https://www.youtube.com/watch?v=PC2tEk7Khz8
ii) मसलन पैन नलिन की ‘Angry Indian Goddesses’. वह ‘रूरल’ नहीं ‘अर्बन’ महिलाओं की कहानी है, इसमें भी तन्निस्ठा चटर्जी ने एक किरदार निभाया है. ‘Parched और Angry Indian Goddesses’ की बनावट, बुनावट और टोन में गज़ब की समानता है.
iii) http://www.nationaldastak.com/story/view/parchd-triwad-but-the-lion-posture-mrdwad-motorable-motorable-
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आशा सिंह फिलहाल NCR में स्थित एक विश्वविद्यालय में जर्नलिज्म एवं कम्युनिकेशन पढ़ाती हैं।